कुछ ही दिन पहले मैं उत्तर प्रदेश के एक जिले चंदौली में गया वहां अपने साथियों के साथ घूमते वक़्त मैंने कई गाँवों का भ्रमण किया और मुझे अनेक व्यक्तियों की कहानियां सुनाने को मिली जिन्होंने देह -त्याग कर भी लोगों के बीच अपने विचारों के बल पे आज भी स्थान बना रखा है | उन में से ही एक हैं स्व. ठाकुर विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ,जिनके बारे में मैंने उनके घर और गाँव के लोगों के साथ-२ आस-पास के लोगों से काफी कुछ सुना और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ | मुझे उनके बारे में सुन कर अपने देश की माती पे और भी गर्व हुआ की इस देश के कोने -२ में ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने कर्म के निर्वहन के बल पर समकालीन और आने वाले लोगों के मस्तिष्क और ह्रदय में स्थान पाया | आज हमारा समाज जिन परेशानियों से गुजर रहा है शायद उसका मूल कारण अपने स्वधर्म और कर्म को भूल विलासिता और अर्थ और भौतिकतावाद की तरफ भागना ही है |
स्व. ठाकुर विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ने शारीरिक-रूप से तो इस संसार को छोड़ दिया लेकिन लोगों की स्मृति-पटल में उनकी छवि आज भी, उनकी नई पीढ़ी में उन्हें तलाशने को मजबूर कर रही है | शायद उनकी स्मृति की छवि से ये नई पीढ़ी मेल नही खा रही |आखिर क्या कारण हो सकता है की ये नई पीढ़ी अपने पूर्वज की छवि से ही आंकी जा रही है ?समाज आखिर क्यूँ आज भी उन्हें उनके जैसा ही देखना चाहता है ?
स्व. ठाकुर विश्वनाथ प्रताप सिंह जी पराधीन भारत के समय से ही स्कूल के हेडमास्टर पद पे न्युक्त हो कर समाज को स्वतंत्रता के मोल और पराधीनता नामक दंड का अर्थ समझाते रहे | उन्होंने निश्चित रूप से उन्होंने निश्वार्थ रूप से अपने दायित्वों की पूर्ति करते रहे और श्रेष्ठ रूप से अंजाम देते रहे तभी आज जिन लोगों की आँखों से देखने की छमता धुंध हो गयी है लेकिन उनकी स्मृति में आज भी उनकी छवि ज्यों की त्यों बनी हुई है |
स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह जी को बहुत बड़ा शिव भक्त माना जाता था ,लेकिन उनकी भक्ति किसी विशेष पूजा पध्धति या नियमों की गुलाम नही थी |वे भक्ति से सर नवाना पसंद करते थे न की धर्म-भीरु बन कर |
गाँव के बुजुर्ग ,जो ठीक से देख नही पाते आज जिनके शरीर में खुद के दैनिक कार्यों को कर सकने की ताकत नही दिखती वे भी उनकी बातें बताते हुए खुद को अजीब सी ताकत से पूर्ण समझने लगते हैं |गाँव के बुजुर्गों के कहे अनुसार सुबह अपने कुँवें से स्नान करके उठते ही ईश्वर को याद करना शुरू कर देते थे और स्नान के बाद घर के सामने से निकलने वाले हर व्यक्ति को रोक लेते ,वो व्यक्ति अब उनके साथ भोजन ग्रहण करने के बाद ही कहीं जा सकते थे | खाने के थाल तक पहुँचते -२ उनकी पूजा ख़तम हो जाती थी | शिवरात्रि को छोड़ किसी और दिन विरले ही किसीने उन्हें शिवालय पे भी देखा होगा |
आज के भक्ति व्यवस्था और ब्राह्मण जानो द्वारा बताई हुई भक्ति से उनकी भक्ति निश्चित रूप से अलग थी,उस में कहीं भी भगवान से मिलने के लिए किसी विशेष-स्थान का चुनाव आवश्यक नही था | कर्म ही श्रेष्ठ पूजा थी और उसका श्रेष्ठ तरीके से निर्वहन ही ईश्वर की सच्ची सेवा थी |स्व. ठाकुर विश्वनाथ प्रताप सिंह जी का कहना था ."आखिर उन्ही का दिया ये जीवन है ,उन्ही की इच्छा से हम कुछ करते है,ये संसार उन्ही परमशक्ति का है ,संसार में हमें मिला हर कार्य उन्ही की इच्छा से मिला है ,हम में जो शक्ति जो उर्जा है वो उन्ही की दी हुई है ,फिर क्यूँ न हम इस सम्पूर्ण उर्जा का इस्तेमाल अपने कर्तव्यों के पूर्ण निर्वहन में लगा अन्त्समय में उनके श्री चरणों की धूलि बनने का गौरव प्राप्त कर सके "|
उन्होंने अपना पूर्ण जीवन जाती -पाती के भेद को भूल कर समाज के हर तबके को शिक्षित करने में लगा दिया |यही उनकी पूजा थी यही उनका धर्म था ,निष्पक्ष ,निश्वार्थ रूप से सभी को ज्ञान दीप की रौशनी से कर्तव्यों और स्वकर्म का बोध करना |
स्व . ठाकुर साहब के अनुसार समाज के पिछड़े वर्ग को समाज के साथ चलने योग्य बनाना अतिआवस्यक है अगर हम देश की तरक्की चाहते हैं | आखिर वो इसी देश का हिस्सा हैं उनके पीछे छोड़ देश आगे कैसे बढ़ सकता है | समय और समाज के जिन भी परिस्थिवास वे हार कर पिछड़ गये हों उन्हें वहां से बहार निकल सभी को एक साथ ले कर चलना आवश्यक |
उनके अनुसार क्षत्रिय एक उपाधि है जिसे योग्यता से पाया जाता है ,ना की मात्र एक क्षत्रियकुल में जन्म ले दान में पाया जा सकता है |क्षत्रिय का धर्म समाज में न्याय को बनाये रखना है ,सभी के हितों का ध्यान रखना है ,ईश्वर ने सबही को जन्म दिया है फिर सिर्फ जाती से किसी का समाज में मानवीय मूलभूत आवश्यकताओं से हक़ कैसे ख़तम हो सकता है |
उनके अनुसार समाज के जिस पिछड़ा वर्ग को ले कर राजनैतिक मंच भविष्य को देख तैयार किया जा रहा है ,उस से इनका कोई भला नही होने वाला |शिक्षा ही एक मात्र वो हथियार है जो इस वर्ग को समानता का अधिकार दिला सकती है|
उनके इन्ही प्रयासों का नतीजा है की उनके अनेक छात्र विभिन्न उच्च-पदों पे आसीन हुए और उनकी दी हुई शिक्षा के बल पर समाज में प्रतिष्ठा पाई और आज तक वे अपने मनन से उनकी उस निस्वार्थ, अटल ,छवि को अपने मन से निकल नही पा रहे हैं |