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Dec 19, 2011

हमारी भूलें : दुनियां का अंधानुकरण करना

हमारा समाज ही नहीं संसार के अधिकांश लोग अंधानुकरण करने के अभ्यस्त होते है| तथा अंधानुकरण को बनाये रखने के लिए उनका सबसे तर्क होता है कि दुनिया क्या कहेगी ?

भौतिकवादियों में समय समय पर अधिक लोग ऐसे निकलते है, जो धनोपार्जन के रुढिवादी तर्कों व व्यवस्थाओं को बदल देते है| लेकिन उनको भी यथास्थिति वादियों से कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ता है| जब तक नया काम करके नहीं देखा दो, उसकी उपयोगिता को सिद्ध नहीं कर दो, तब तक लोग उसको अपनाने को तैयार नहीं होते|

वर्तमान शताब्दी में भारतवर्ष में भौतिक क्षेत्र में अनेक रूढिवादियों को ध्वंस किया व उसके अग्रणी लोगों ने आर्थिक क्षेत्र में बेतहासा लाभ भी प्राप्त किया| तब हमारा समाज बोतल के नशे में, अज्ञान के अंधकार में व निष्क्रियता के गर्त में पड़ा, यह सब देखता रहा|

अब समाज के समझदार कहे जाने वाले लोग कहने लगे है कि हम पिछड़ गए है| हमको शहरों की ओर दौडना चाहिए, ताकि इस आर्थिक प्रगति की दौड में हम भी शामिल हो सकें| भौतिक प्रगति व विज्ञापन के आविष्कारों में भारत स्वयं दुनिया के देशों से एक हजार वर्ष पीछे चल रहा है| हमको इस बात का बोध नहीं है कि विज्ञान अपने विनाश के लिए बेताबी से तडफ़ रहा है| इतने विनाशकारी हथियारों का अविष्कार हो चूका है कि किसी भी क्षण सम्पूर्ण विश्व का विज्ञानं राख की ढेरी बन सकता है| जब बढ़ने व लाभ उठान एके दिन थे, तब हम सोते रहे और अब जब विनाश के दिन आने लगे है, हम उस और दौड पड़ना चाहते है|
संसार के सामने इस समय सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व व समाज परिवर्तन की है| जो भी व्यक्ति या समाज इस कार्य को कर सकेगा,वही समाज में जीवित रह सकेगा| आज सारा संसार धर्मों,राष्ट्रों व आर्थिक वादों के झंझटों में फंस कर इस प्रकार भया-क्रांत है,कि उसे चारो और अपने विनाश के अलावा कुछ नहीं दीखता| यह आश्चर्यजनक बात है कि विनाश को कोई भी पसंद नहीं करता,फिर भी विनाश से सब भयभीत है| इसलिए है कि वे धर्म,राष्ट्र व आर्थिक वादों के,अपने रूढिगत बंधनों को छोड़ नहीं सकते और यही रूढ़ियाँ नहीं चाहते हुए भी संसार के लोगों को विनाश के कगार पर पंहुचा देगी,इस बात को संसार के लोग अच्छी तरह समझने लगे है|
ऐसी परिस्थिति में लोग चमत्कारों की खोज में लगे हुए है| आज से पचास या सौ वर्ष पहले जिन भविष्य वाणियों व आध्यात्मिक शक्ति को लोग पिछड़ापन व रूढीग्रस्तता कहते थे|उनकी बात लोग सुनने लगे है| इसी के परिणाम स्वरूप ऐसी खबरों को इस समय अखबारों में प्रमुखता दी जा रही है|लोग अन्धकार में किसी प्रकाश की किरण खोज लेने के लिए आतुर है| ऐसा समय ही श्रेष्ठ लोगों को नेतृत्व की और आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त होता है| गोरखनाथ कहते है "रात गई मध्यरात्रि गई,तब एक बालक चिल्लाता है,है कोई शूरवीर इस संसार में" घोर कलियुग समाप्त हुआ,नवयुग के निर्माण की बेला सामने खड़ी है| संसार का असहाय मनुष्य बालक की भांति चिल्ला रहा है,है कोई शूरवीर इस संसार में,जो आये और हमें बचाए|
एक कहावत है,'समय का सर पीछे से गंजा है ',तथा वह अपने बाल चेहरे पर डाले रखता है|इसलिए समय आता है तो लोग पहचान नहीं पाते,जब वह आगे बढ़ जाता है,तब उसके सर की गंज को पहचानते है और पकड़ने को दौड़ते है,किन्तु पकड़ नहीं पाते| वाही विडम्बना आज क्षत्रिय समाज के समक्ष है| लोग शक्ति संपन्न,श्रेष्ठ पुरुषों की तलाश में है और हम दुर्गुणों व भ्रष्टाचार की दौड़ में शरीक हो रहे है| अपनी गति को और बाधा लेना चाहते है कि दुनियां से कही पिछड़ न जाय|
व्यक्ति आसानी से बुराई व भ्रष्टाचार में पड़ना नहीं चाहता|उसकी स्वाभाविक वृत्ति सतत विकास की और आगे बढ़ते रहना है,लेकिन वह दुनियां जो उसके चारों और फ़सी हुई है,उसे बाध्य कर देती है इस बात के लिए कि,वह अपने अनोभावों को दबाये| अपनी मौलिक स्वतंत्रता को खोकर दुनियां की दासता को स्वीकार करले|
एक व्यक्ति के लिए समाज के विरुद्ध लड़ना बहुत ही दुष्कर कार्य प्रतीत होता है| यदि अमुक रीति रिवाज़ का पालन नहीं किया तो दुनियां क्या कहेगी?अगर अमुक प्रकार से आचरण किया तो दुनियां क्या कहेगी?अगर अमुक प्रकार से विचारों को व्यक्त किया तो दुनिया क्या कहेगी?दुनिया के ही लोग दुनियां की दुहाई देकर,व्यक्ति को दुनियां का गुलाम बना लेने के लिए आतुर है|और दुर्बल व्यक्ति चहरे पर अप्राकृतिक मुस्कान लिए हुए बोझिल दिल के साथ इस गुलामी को स्वीकार कर लेता है|

संसार में एक भी श्रेष्ठ व्यक्ति या महापुरुष ऐसा नहीं हुआ, जिसने दुनियां की गुलामी को स्वीकार किए हो| और दुनियां में ऐसा कोई भी व्यक्ति महापुरुष नहीं बन सका, जिसने अपने जीवन में दुनियां की गुलामी को अंगीकार किया हो| दुनियां में किसी भी श्रेष्ठ पुरुष के वचनों को इस दुनियां के लोगों ने कभी भी आसानी से स्वीकार नहीं किया और न ही किसी भी महापुरुष के कार्यों में सक्रीय योगदान दिया| लेकिन जब उनके कार्य पुरे हो गए वे ही दुनियां के लोग, उनको पूजने व उनके नाम पर दूकान दारियां चलाने के लिए सबसे आगे हो गए|

भगवान राम, बन्दर व भालुओं की सेना लेकर लंका विजय कर आये| जब वापस अयोध्या लौटे तो ३०० राजा लंका पर चढाई करने के लिए उपस्थित थे| दुनियां का यह रिवाज कोई नया नहीं है| राम को भगवान मानकर पूजने में गौरव समझने वाली दुनियां, उनका साथ नहीं दे पाई|

महान तपस्वी व ज्ञानी पितामह भीष्म, नीतिज्ञ विदुर, विद्वान द्रोणाचार्य, धनुर्धर कर्ण में से किसी के भी कान ने कृष्ण की पुकार को नहीं सुनी| लेकिन पुरुषार्थी पांडवों की कृष्ण जि ने जब विजय करादी तो वही दुनियां श्री कृष्ण को भगवान के रूप में पूजने को आतुर हो गयी|

बुद्ध, महावीर, जीसस, मोहम्मद आदि कितने लोग इस संसार में ऐसे हुए जिन्होंने इस संसार को नई ज्योति व नया मार्ग दिया| लेकिन दुनियां के लोगो ने कभी उनका साथ नहीं दिया| इतना ही नहीं उनके जीवन के आरंभकाल में दुनियां के लोगों ने, उनका कठिनतम विरोध किया|
हम और हमारा समाज आज उसी दुनियां की दुहाई देकर पतन के गर्त में पड़े रहना चाहते है| हम कायरतावश इतना साहस नहीं जुटा पाते कि आत्मचिंतन कर, वास्तविकता को समझे और सत्य पर आधारित होकर उस मार्ग की खोज करें जिससे स्वयं का, समाज का व संसार का कल्याण हो|

संसार में क्षात्र धर्म को छोड़कर एक भी धर्म ऐसा नहीं है जो संसार के कल्याण के कल्पना करता हो, अथवा जिससे आत्मकल्याण तक पहुँचने की क्षमता हो| संसार के सबसे बड़े वैभव, व सबसे बड़ी संपदा के स्वामी होकर भी आज हम दुनियां के फरेब में फंसकर, दीन हीन व दरिद्र है तथा इसी दरिद्रता को बनाये रखने व भोगते रहने का उपक्रम कर रहे है|

समाज चरित्र, व्यक्ति के निर्माण में यदि सहायक है तो उसे स्वीकार करना चाहिए| यदि वह समाज के चरित्र को गिराने की चेष्टा करता है,तो ऐसे समाज चरित्र के विरुद्ध विद्रोह अनिवार्य है| आज समाज के सुधार की आवश्यकता नहीं, विद्रोहियों की आवश्यकता है, जो अस्वीकार कर सके, इस सब पंडावादी व परम्परावादी पाखंड को|

वह समाज, समाज नहीं है जो लोगों को पतित करना चाहता है| लोगों के विकास को रोक देना चाहता है| अबोध बालकों में कुसंस्कार पैदा कर देना चाहता है| ऐसा समाज बूचड़खाना है जहाँ इंसानों की सरे आम हत्या की जाती है|

ऐसे समाज को बदलना ही पड़ेगा| उसकी मान्यताओं व परम्पराओं को ठुकराना पड़ेगा| सारा सामजिक पाखंड, धर्म के नाम पर खड़ा किया गया है| इसके लिए हमको समझ लेना चाहिए कि मानव, मानव के बीच केवल तीन ही आध्यात्मिक सम्बन्ध है| यदि लोगों के बीच में तीन सम्बन्ध नहीं हो तो समाज किसी भी सूरत में धार्मिक समाज नहीं है| और ऐसे अधार्मिक समाज को तौड देना, उसके विरुद्ध विद्रोह करना सच्चा धर्म है|

पहला आध्यात्मिक सम्बन्ध है, पिता व पुत्र का| पिता का उसका पुत्र बारह वर्ष का तो उससे पूर्व सिद्ध मन्त्र प्रदानकर संस्कारित करना चाहिए| इस प्रकार पिता व पुत्र एक ही मन्त्र का जो सिद्ध किया जा चूका है, जप करते है तो वे एक दूसरे की इस संसार के कर्मों में ही नहीं, मृत्यु के पश्चात भी अधोगति होने से बचा सकते है|

दूसरा आध्यात्मिक सम्बन्ध है पति व पत्नी का| यदि पति अपने जीवन में पत्नी के अलावा किसी दूसरी स्त्री को अपने मन में स्थान नहीं देता व इसी प्रकार यदि पत्नी अपने मन में पति के अलावा अन्य किसी पुरुष को स्थान नहीं दे तो वे एक दूसरे की रक्षा करने में समर्थ होते है| यही क्रम जब सात जन्मों तक पहुँचता है तो पत्नी महासती की श्रेणी में आ जाती है|

तीसरा आध्यात्मिक सम्बन्ध अहि गुरु व शिष्य का| जिसके नाम पर आज दुनियां में सबसे ज्यादा ठगी हो रही है| लोग गुरु बनकर कल्याण का ठेका ले रहे है| जबकि उन्हें यह भी पता नहीं है कि गुरु का चयन बुद्धि से नहीं किया जा सकता| और न ही अंधाधुंध शिष्यों की भर्ती की जा सकती है| यदि पिता समर्थ है व उसने मन्त्र देकर पुत्र को दीक्षित कर दिया है तो वही गुरु है| लेकिन आज के गिरे हुए समाज में इस प्रक्रिया के लोप हो जाने पर, बाजारों में कान में फूंक देकर बनने वाले गुरु बनने लगे है| जिनके फरेब से लोगों को बचाना चाहिए| व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी मार्ग दर्शन की चाह रखे जैसी भी उसकी रूचि हो, उसी प्रकार की साधना में लगा रहे | एक रोज उसको अचानक गुरु की प्राप्ति हो जायेगी| बनाने से गुरु नहीं बनते| कोई भी तुच्छ बुद्धि से संत की खोज नहीं कर सकता|

इसीलिये दादूजी ने कहा है-“ गैब माहि गुरु देव मिल्या” गुरु प्रयत्न करने से या खोने से नहीं मिलते| जब पात्र में पात्रता उत्पन्न होती है टी वे करुणा करके स्वयं मार्गदर्शन देने को तैयार होते है|

अत: स्पष्ट है कि जो लोग समाज सेवा के संगठन की बात करते है, उनको दुनियां के विरुद्ध कमर कसनी होगी| उनके द्वारा किये जाने वाले विरोध व अत्याचारों को सहन करना पड़ेगा| जो लोग ऐसा करने को तैयार नहीं है, उनके लिए यही हितकर है कि वे कम से कम समाज कल्याण की बात करना बंद करदे|

लेखक : श्री देवीसिंह महार

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