व्यक्ति गरिमा के विकास के लिए काल धर्म को समझना आवश्यक है|
सतयुग में समाज पूरी तरह से बंधनों से मुक्त होता है, क्योंकि वह केवल “शब्द” को ही अपने विकास का आधार बनाता है| जिसके उच्चारण के लिए, किसी प्रकार के प्रतिबंधित जीवन की आवश्यकता नहीं होती| धीरे-धीरे उस महिमा को खो देने पर, जब व्यक्ति अपना पराभव देखने लगता है, तो त्रेतायुग में वह दूसरी भौतिक शक्तियों से मदद की अपेक्षा कर, यज्ञादि व कर्मकांडो की सृष्टि कर, उनके द्वारा व्यक्ति की शक्ति को बनाए रखता है| लेकिन इन सबके लिए इतने प्रतिबंधित जीवन की आवश्यकता होती है कि दीर्घकाल तक उन प्रतिबंधों का निर्वाह भी नहीं कर पाने के कारण पुन: गिरावट की और चला जाता है, जिसको रोकने के लिए द्वापर में वह आराधना पद्धति को विकसित कर्ता है, जिसके लिए प्रतिबन्धों की आवश्यकता तो है, लेकिन कर्मकांडी नियमों के समान कठोर प्रतिबंधों से बचा जा सकता है| इससे पतनोन्मुख व्यक्ति को कुछ समय तक राहत अवश्य मिलती है, लेकिन धीरे-धीरे वह उन प्रतिबंधों को भी सहन करने की क्षमता खो देता है, तब प्रादुर्भाय होता है कलियुग का, जिसके आरम्भ में व्यक्ति तंत्रादी निकृष्ट क्रियाओं का आश्रय ले, पुन: शक्तिशाली बनने की चेष्टा करता है| क्योंकि इस पद्धति में प्रतिबन्धों की आवश्यकता तो है लेकिन अल्पकालिक| इस प्रकार जब अल्पकाल में घटिया साधनों से अर्जित शक्ति से लोग शोषण में प्रवृत होते है,तब उनसे पीड़ित जनता आत्मरक्षा के लिए सोचने को विवश हो जाती है|
इस समय तक सामाजिक व जीवन पद्धतियाँ इतनी दूषित व पराश्रित हो जाती है कि उनके रहते किसी प्रकार की प्रतिबंधित साधना की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है| तब एक मार्ग शेष रह जाता है, अपनी मूल स्वाभाविकता की और वापस लौटना| प्रतिबंधित जीवन जीवन व साधना पद्धतियों की नकार देना| इस अस्वीकृति के पीछे जो स्वीकृति छिपी है, वह “शब्द” साधना को स्वीकार कर लेने की| केवल साहित्यक रूप से मन्त्र जप की पद्धति को अंगीकार कर लेना| इसके लिए न तो किसी पद्धति की आवश्यकता है न बाहरी शक्ति की मदद की, क्योंकि शब्द सृष्टि में ही विचरण करने वाली जो सात्विक शक्तियाँ है, वे इस मार्ग पर चलने वालों का स्वत: ही अपने स्वभाव के वशीभूत हो कर मार्गदर्शन आरम्भ कर देती है| इस प्रकार कलियुग की पुन: सतयुग की और अग्रसर करने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है|
वर्तमान काल का इस दृष्टि से अध्ययन किया जावे, तो काल धर्म यही कहेगा कि वह समय आ गया है, जब समस्त प्रपंचों एवं प्रतिबंधों से मुक्त होकर सहज व सरल नाम स्मरण का आश्रय ले, व्यक्ति अपनी शक्ति को पुनर्जीवित करे| इसी पद्धति से समाज, राष्ट्र, व विश्व धीरे-धीरे स्वत; ही परिवर्तित होते चले जायेंगे| व्यक्ति की गरिमा बढ़ेगी| मानवता का पुनरोदय होगा| समाज को शोषण से मुक्ति मिल सकेगी| यही समय की पुकार है, काल धर्म है व युग धर्म है|
लेखक : श्री देवीसिंह महार
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