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Dec 21, 2011

हमारी भूलें : भविष्य की कल्पना में दुबे रहना

क्रांतदर्शी होने का तात्पर्य है,आर पार देखने की सामर्थ्य| अर्थात वतमान को छोड़कर भविष्य को देख लेने की सामर्थ्य| यह एक गुण है खास तौर से नेतृत्व् का यह विशिष्ट गुण है| जिस नेता में यह गुण नहीं है व समाज का मार्ग दर्शन करता है तो उसे दोषपूर्ण कार्य ही कहा जाएगा| क्योंकि जिसको स्वयं मार्ग नहीं दिखाई देता वह दूसरों का मार्ग दर्शन करने का दावा किस आधार पर कर सकता है|

भविष्य को देखकर,वर्तमान व भविष्य दोनों का समन्वय करने वाली योजनाओं की रचना तो नेता करता है,वही लोकप्रियता व सफलता दोनों को प्राप्त कर सकता है| जो लोग केवल दीर्घकालिक योजना बनाकर कार्य आरम्भ करते है,उनके कार्यकर्ताओं का वर्तमान इतना बोझिल हो जाता है कि वे लक्ष्य को प्राप्त करने से पूर्व ही थक कर निराश हो जाते है| इसके विपरीत जो केवल वर्मान को देखकर ही परिस्थितियों के निवारण हेतु कार्य करते रहते है,वे अपने जीवन के अंत में इस अनुभव पर पहुँचते है कि वे कुछ भी नहीं कर पाए|

भविष्य को देख पाने कि क्षमता व भविष्य कि कल्पना में डूबे रहना दो अलग अलग बात है| भविष्य कि कल्पना में डूबे रहने से तात्पर्य यह है कि बिना भविष्य को देख,केवल काल्पनिक भविष्य की रचना करते रहना| और आज का समाज व आज का व्यक्ति इसी प्रकार के काल्पनिक भविष्य की रचना करने का अभ्यस्त हो गया है,क्योकि हम पिछले लम्बे समय से केवल कल्पना की दुनियां में जीवित रहे है व अब भी उसी प्रकार की दुनियां में बसे रहना चाहते है|

वर्तमान,जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग है| जो वर्तमान को ठीक प्रकार से व्यतीत करता है,उसी को भविष्य की दृष्टि या भविष्य को देखने की सामर्थ्य मिल सकती है| कल्पना,मन ओर बुद्धि की उड़ान है,जिनके पास वास्तविकता कुछ भी नहीं होती| अतः वास्तविकता में स्थित होकर किसी भी प्रकार की उपलब्धि को प्राप्त करना असम्भव है|

हमने व हमारे समाज ने वतमान में स्थित रहना व वर्तमान को ठीक प्रकार से व्यतीत करने की कला को खो दिया है जिसने वर्तमान को खो दिया,उसका भविष्य स्वतः ही खो जाता है,क्योकि भविष्य वर्तमान से अगला कदम है| जिसके कदम अभी जमीन पर स्थित नहीं है,अगले कदम की कल्पना नहीं कर सकता ओर अगर वह कल्पना करता है तो ऐसी कल्पना हमेशा कल्पना ही रहेगी,वह कभी वास्तविकता नहीं बन सकती|

वतमान में जीने का अभीप्राय यह है कि मै हूँ,उसी प्रकार से अपने आपको स्वीकार करूँ| आज लोग अपने आपको प्रतिष्ठित दिखाने व बुद्धिमान साबित करने कि दौड में लगे रहते है| जिसका परिणाम यह होता है कि लोग आडम्बरों में फंस कर अपनी जीवन शक्ति व आर्थिक शक्तियों का विनाश करते रहते है| धीरे धीरे ये प्रतिस्पर्धाएं इस हद तक पहुँच जाती है कि व्यकि व समाज उनके भार को सहन करने में असमर्थ हो जाता है| जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति की अर्थ व्यवस्था व समाज की परम्पराएं नष्ट भ्रष्ट हो जाती है| अपने स्वभाव से विमुख होकर कोई भी कल्याण की कल्पना नहीं कर सकता| स्वाभाविक जीवन हमेशा सरल होता है | संसार द्वारा विज्ञान में अदभुत प्रगति की गई है,इसके बावजूद सौंदर्य की अनुभूति के लिए उन्हें प्रकृति कि गोद से जाने के लिए बाध्य होना पड़ता है,क्योकि रचना पर रचना तथा आविष्कार पर आविष्कार जीवन में जटिलता को पैदा करते है|इस प्रकार उत्पन्न हुई जटिलताओं में जीवन का सौंदर्य खो जाता है|

प्राकृतिक,सहज सुंदरता को खोकर,तब लोग क्रत्रिम साधनों का शारीर में प्रयोग कर अपने बोझिल जीवन को हल्का करने कि चेष्टा करने लगते है| जिससे स्वाभाविकता की निरंतर क्षति होती है व पर निर्भरता का व्यक्ति व समाज अभ्यस्त होता चला जाता है| जिसके परिणामस्वरूप क्षीणता से उत्पन्न अनेक रोगों से घिर कर व्यक्ति विनाश के गर्त में जा गिरता है|
वतमान में जीने का पहला आधार है,अपनी सव्भाविक स्थिति को अक्षुण्य बनाए रखना,दूसरों की देखा देखी प्रतिस्पर्धाओं व अस्वभाविक आयोजनों में नहीं पड़ना| इस स्थिति को प्राप्त करलेने के बाद वर्तमान में जीवित रहने का दूसरा आयोजन सामने प्रगट होता है| वह है “मै कौन हूँ?” “समय कैसा है” “मेरी सामर्थ्य क्या है?” “कौन शत्रु है?” “व कौन मेरे मित्र है?” इन सारी बातों पर विचार कर अपना कार्य क्षेत्र निश्चित करना व अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ कार्य में जुट पड़ना|

हमारे समस्त सामजिक संघटनों की आज व पिछले सैकड़ों वर्षों से एक सी ही स्थिति चली आ रही है| उनका निर्माण बहुत उत्साह के साथ किया जाता है| थोड़े समय तक उत्साहपूर्वक कार्य भी होता है व उसके बाद धीरे धीरे धाराशायी होने लगते है| इस परिस्थिति का क्या कारण है?इस विषय पर यदि हम गंभीरता से विचार करें तो एक ही निष्कर्ष पर पहुंचेंगे ओर वह यह कि,हम संघटन के निर्माण से लेकर उसके पराभवकाल तक केवल भविष्य को सुन्दर व सुखद बनाने कि कल्पना में डूबे रहे थे| हमने लोगों को उज्जवल भविष्य की कल्पना दी थी| अपने स्वयं के मष्तिष्क में भी उसी प्रकार कल्पनाओं को संजोया था| लेकिन अपने वर्तमान को सम्भाल लेने की हमारे में सामर्थ्य नहीं थी,जिसके कारण बालू की भीत की तरह कल्पनाये धाराशाई होती चली गई|

वास्तविक कठिनाई यह है कि वर्तमान में जीने के लिए व्यक्ति को अपने आप को संभालना पड़ता है| अपनी वृतियों को विकासोन्मुख करना पड़ता है व अपनी घिसी पिटी परम्पराओं को तोड़ना पड़ता है| इन सब कार्यों को करने के लिए व्यक्ति को अपने भीतर व बाहर संघर्ष का आव्हान करना पड़ता है| ऐसे संघर्ष को समय की सीमाओं में भी बाँध कर नहीं रखा जा सकता| जीवन पर्यन्त सतत संघर्ष एक डरावनी कल्पना है| उससे बचने के लिए हम चालबाजी व बुद्धि का सहारा लेकर अनेक रास्ते निकालते है व निकालते रहे है| उसी प्रकार के रास्तों पर चलकर हमारे समाज ने अपना सर्वस्व गंवाया|

अब समाज सेवक बनकर सामने आने वाले लोग भविष्य के सुन्दर सपनों की कल्पना दे, तो उन्हें दो काम अवश्य कर लेने चाहिए, पहला तो यह है कि वर्तमान को जीने के बारे में उनके पास क्या धारणा व कार्यक्रम है; उसको ठीक प्रकार से मालूम कर लेना चाहिए| दूसरे वे तथा उनके साथी वर्तमान को किस प्रकार से जी रहे है, इसका ठीक,प्रकार से अध्ययन कर लेना चाहिए, क्योंकि जिनके पास वर्तमान नहीं है, वे जो भी भविष्य की योजना लेकर आवेंगे वह मृग-मरीचिका ही होगी|

इस प्रकार की परीक्षा से बचने के लिए समाज सेवा के नाम पर चलने वाली दुकानों के दुकानदारों ने यह कहना आरम्भ किया है कि लोगों को व्यक्तियों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में नहीं सोचना चाहिए| जबकि वास्तविकता यह है कि व्यक्ति का जीवन ही उसका वर्तमान है और जिसके पास वर्तमान नहीं है, उसका भविष्य कभी भी उज्जवल नहीं हो सकता| इतना ही नहीं बल्कि उसका भविष्य निश्चित रूप से अंधकारमय होगा|

लम्बे चौड़े भाषण, लंबी चौड़ी योजनाओं व लम्भी चौड़ी भविष्य की कल्पनाओं से प्रभावित होकर आज तक समाज ने खोया ही खोया है| अब आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम कल्पनाओं की दुनियां से दूर होकर अपने वर्तमान को देखें, उसे सहज व सुन्दर बनाने का प्रयास करे,आडम्बरों व प्रतिस्पर्धाओं से बचें, तो अपनी भूलों को ठीक करने की ओर अग्रसर हो सकेंगे|
लेखक : श्री देवीसिंह महार

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