व्यवहार में पवित्रतता लाने के लिए आहार की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है| कहा गया है कि – “ जैसा अन्न वैसा मन”| जिस प्रकार का हम आहार करते है उसी प्रकार का मन बनने का आशय है कि यदि हमारा आहार तामस है तो मन उससे प्रभावित होकर अहंकार के पक्ष में निर्णय करेगा व यदि आहार सात्विक है तो मन सदा बुद्धि के अनुकूल रहकर हमको तर्क संगत विकासशील मार्ग अग्रसर करता रहेगा|
आज मदिरा व मांस जैसे तामसिक आहार का समाज में आम प्रचलन ही नहीं हुआ ,बल्कि हम इस प्रकार के आहार को अपनी परम्परा का एक अंग समझने लगे है| क्योकि हम नहीं जानते कि हमको पथ भ्रष्ट व शक्तिहीन बनाने क लिए मुगलकाल में षड्यंत्र रचा गया| देवताओ क मंदिरों में बली देकर मांस भक्षण को नैमितिक कर्म बताकर कहा गया की देवी के प्रसाद के रूप में मांस मदिरा का भक्षण करने से पाप नहीं लगेगा|
हमने कभी इस विषय पर विचार करने की चेष्टा नहीं की कि देवियों के मंदिर में बलिदान कि परम्परा कब व क्यों आरम्भ हुई? एक हज़ार वर्ष से अधिक प्राचीन एक देवी का मंदिर ऐसा नहीं मिलेगा जहाँ पर पशुओ कि बली दी जाती हो या मूर्ति पर मदिरा चढाई जाती हो| कच्छवाहों की कुल देवी जमवारामगढ़ की "जमवाय माता",जम्मू की वैष्णव देवी,संभार की शाकम्भरी देवी के मन्दिर इस तथ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण है लेकिन जिव्हा के स्वाद के चक्कर में फंसे लोग यदि वास्तविकता की उपेक्षा कर हठधर्मी पर आमादा रहें तो फिर उन्हें स्वयं अपने आप के व समाज के उत्थान की कल्पना नहीं करनी चाहिए|
वैज्ञानिक दृष्टि से भी यदि आहार क संबंद में विचार किया जावे तो हम पायेंगे की मांसाहारी पशुओ के नाख़ून नुकीले तथा बगल के दांत लम्बे व दाढो के बीच में जगह पाई जाती है|उनकी आंते अन्य पशुओ से चौड़ी होती है व आहार किये हुए भोजन की उल्टी कर उसे दुबारा खाने की उनकी आदत होती है|इन सब प्राक्रतिक लक्षणों से मनुष्य युक्त नहीं है फिर भी वह केवल स्वाद का परित्याग नहीं सकते के कारण अपने स्वास्थे के लिए हानिकारक इस आहार को ग्रहण करता है
मांस मदिरा भक्षण के विरोधी तीसरे प्रबल तथ्य पर आने से पूर्व इसके पक्ष में कहे गए एक वचन पर विचार कर लेना आवश्यक होगा |
एक पंडितो की सभा में चेतन्य महाप्रभु की उनकी आहार की अशुद्धता के लिए निंदा की जा रही थी |महाप्रभु जिन्हें उनमे से कोई पहचानता नहीं था ,एक कोने में बेठे यह सब सुन रहे थे |जैसे ही भाषण समाप्त हुए,उन्होंने खड़े होकर एक प्रश्न किया कि कबूतर जो चुगा व अन्न का सात्विक आहार करता है,हमेशा काम वासना से पीड़ित रहता है ,लेकिन शेर जो मांसहारी है एक वर्ष में केवल एक बार सम्भोग करता है |फिर आहार की पवित्रता का क्या महत्व है?पंडित इसका तर्कसंगत उत्तर नहीं दे सके |लेकिन हमे ये नहीं भूलना चाहिये की चेतन्य महाप्रभु इतने उच्च कोटि के संत थे की वे साधना पथ पर आने वाली कठिनाइयों की स्थिति को भली प्रकार समझने तथा नियंत्रित करने में सक्षम थे|ऐसे महान लोगो तथा जो लोग आध्यात्मिक विकास के लिए उत्सुक थे,उनके लिए आहार की शुद्धता अर्थहीन है|इसके अलावा हमे ये भी नहीं भूलना चाहिए है की प्रत्येक प्राणी में अपने विशिष्ट गुण होते है |किसी भी प्रकार की सांसारिक परिस्थियाँ उन गुणों को नष्ट नहीं कर सकती|
क्रमश:..........
लेखक : श्री देवीसिंह महार
श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ | इस चिंतन और उन भूलों के बारे में क्यों चर्चा की जाय इसका उत्तर भी आपके द्वारा लिखी गयी इस श्रंखला में ही आपको मिलेगा |