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Nov 10, 2011

हमारी भूलें : आहार व्यवहार की अपवित्रता - 1

आज संसार का वातावरण इतना दूषित हो चूका है कि मानव के नैतिक मूल्यों की समाज के सामने कोई कीमत नहीं रही| इस वातावरण का हमारे समाज पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है तथा सत्य,निष्ठां व उदारता जैसे आवश्यक व्यक्तिगत गुणों को खोकर हमने हमारे निर्माण के आधार को खंडित व क्षय विक्षत कर दिया है|
पाखण्ड व फरेब को आज दुनिया में सफलता के लिए आवश्यक उपकरण समझा जाने लगा है जिसके परिणाम स्वरूप वचन की गरिमा व परस्पर विशवास की भावना का लोप होता जा रहा है| लोग नहीं जानते कि घटिया माल बाजार में अच्छे माल के अभाव की स्थिति में ही खपता है| पाखण्ड व फरेब का अस्तित्व तब तक है जब तक लोग सत्य निष्ठा की और उन्मुख नही होते|

घर्म की जड़ सत्य है,जो उदारता के जल से सिंचित होने पर बढ़ता है| आज लोग वचन की गरिमा को खोकर तथा पाखण्ड व फरेब का आश्रय लेकर मात्र धर्म के पालन की बात करते है,तो इसे विडंबना ही कहा जाएगा|

अकारण,बिना किसी हेतु के झूंठ बोलना व प्रत्येक कार्य में अपने हित की बात ढूँदना आज लोगों की सामान्य आदत हो गई है| यही सामजिक संगठनों में विग्रह व विवाद का मुख्या कारण है|लोगों ने आज परस्पर विश्वास को खो दिया है क्योंकि हमारे वचनों ने अपनी विश्वशनीयता खो दी है| राजनैतिक ही नहीं सामाजिक संघठन भी आज हमारे लिए लोक कल्याण या समाज कल्याण के हेतु नहीं रहे क्योंकि उदारता को खोकर हमने स्वार्थपरता का पाठ सीख लिया है जिसके परिणाम स्वरुप संगठनों के माध्यम से भी हम उदारता खोकर स्वार्थ सिद्धि या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने में लग जाते है| जब तक समाज के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्त्ता,पहले स्वयं अपने व्यवहार को सत्यनिष्ठ व उदार नहीं बनायेंगे तब तक समाज के अन्य लोगों को इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित नहीं क्या जा सकता| व्यवहार की पवित्रता को खोकर कोई भी व्यक्ति समाज और अपने कल्याण की कल्पना नहीं कर सकता| यदि इस मार्ग की उपेक्षा कर कोई थोड़े समय तक लोकप्रियता अर्जित भी करले तो उससे साधक का पथ भ्रष्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि कुछ समय बाद ऐसे लोगों को समाज उस समय स्वत: ही ठुकरा देगा, जब वास्तविकता प्रगट हो जायेगी|

व्यवहार में पवित्रतता लाने के लिए आहार की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है| कहा गया है कि – “ जैसा अन्न वैसा मन”| जिस प्रकार का हम आहार करते है उसी प्रकार का मन बनने का आशय है कि यदि हमारा आहार तामस है तो मन उससे प्रभावित होकर अहंकार के पक्ष में निर्णय करेगा व यदि आहार सात्विक है तो मन सदा बुद्धि के अनुकूल रहकर हमको तर्क संगत विकासशील मार्ग अग्रसर करता रहेगा|

क्रमश:...................


लेखक : श्री देवीसिंह महार
क्षत्रिय चिन्तक
श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ | इस चिंतन और उन भूलों के बारे में क्यों चर्चा की जाय इसका उत्तर भी आपके द्वारा लिखी गयी इस श्रंखला में ही आपको मिलेगा |

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