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Jul 15, 2011

हमारी भूलें : मार्गदर्शकों का मार्गदर्शन स्वीकार नहीं करना

व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्तियों पर उसका स्वयं का प्रभुत्व होता है | उसके विकास के सम्पूर्ण साधन व आवश्यक गुण - धर्म उसके अन्दर विद्यमान होते है , इसके बावजूद वह अपनी प्रत्येक विफलता के लिए दूसरों को दोषी ठहराने का अभ्यस्त हो गया है |
हमारे समाज के पतन काल के बहुत पिछले भाग को छोड़ भी दें , जिसमे बुद्ध , व महावीर आदि हुए , तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि समाज के लिए मार्ग दर्शकों का अभाव रहा है| पिछले एक हज़ार वर्षों में देश के प्रत्येक भाग में ऐसे अनेक क्षत्रिय तपस्वी हुए जिन्होंने अपनी वाणियों व विचार आन्दोलनों द्वारा समाज को भविष्य का संकेत देने व पूर्वाग्रहों से मुक्त करने कि चेष्टा की लेकिन हमने इनकी और कभी ध्यान नहीं दिया तथा अपने पूर्वाग्रहों व दुराग्रहों से पीड़ित रहने के कारण , इनके मार्गदर्शन को स्वीकार नहीं कर सके|

देश पर मुसलामानों के आक्रमण के आरम्भ काल में संत रामदेवजी हुए जिन्होंने समझने की चेष्टा की कि हरिजनों को नजदीक लेने व उनको समाज का अभिन्न अंग बनाने की आवश्यकता है , लेकिन हमारे समाज ने उनका मार्गदर्शन स्वीकार नहीं किया| हरिजन आज भी गीत गाते है - " तंवरा की बोली प्यारी लागे सा " लेकिन रामदेव जी के वंशजों को हरिजनों की बोली कटु लगती रही| परिणाम यह हुआ कि हरिजनों को गले लगा कर महात्मा गाँधी राष्ट्र पिता बन गए व हरिजनों से नफरत करने वाले स्वयं अपनी ही नफरत से आज भी तड़प रहे है|

इसी परम्परा में ' रूपादे ' व ' मल्लिनाथ जी ' ने भी हरिजनों द्वारा की विचारश्रंखला को आगे बढाने का प्रयत्न किया , लेकिन इनके उपासक केवल हरिजन ही रह गए| रूपादे के भजनों का कहीं संग्रह मिल सकता है क्या ? यह प्रश्न मल्लिनाथ जी के वंशजों से पूछे जाने पर उत्तर मिला " उनके भजन तो हरिजन गाते है|" जिस समाज में संतों व भविष्य द्रष्टाओं के बारे में यह द्रष्टिकोण हो , उसका मार्ग दर्शन कोण कर सकता है ?

कार्ल मार्क्स के समकालीन सिरोही में संत अनोपदास जी हुए , जिन्होंने कहा कि समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों का उदय पूंजीपति ( बनिये ) के यहाँ से होता है , अतः पूंजीपतियों का सामजिक बहिष्कार करो , जिससे समस्त बुराइयां स्वतः ही समाप्त हो जायेगी| हमने उनकी बात भी नहीं सुनी| परिणाम यह हुआ कि पूंजीपतियों ने बुद्धि जीवियों के साथ गठजोड़ कर समस्त राज तंत्र पर अपना आधिपत्य जमा लिया|

जिस समय निकृष्ट पंडावादी लोगों के तांत्रिक आघातों से समाज पूरी तरह से पीड़ित था|महान संत मुच्छंदरनाथ व गोरखनाथ का उदय हुआ| जिन्होंने सात्विक साधना के द्वारा जनता को तांत्रिकों के अत्याचारों से मुक्त किया व उनमे नया आत्म विशवास पैदा किया| ब्राह्मणों का सर्वांगीण पतन हो जाने के कारण शास्त्रों में वर्णित ब्राह्मणों की महिमा के स्थान पर उन्होंने संतों की महिमा प्रतिपादित की व सत्संग को ही कल्याण का मार्ग बताया| गरीब जनता ने इन संतों को ह्रदय से लगा लिया| इनका अनुसरण गुरुनानक देव , कबीरदास , दादूदयाल आदि सैकड़ों संतों ने किया व अपनी वाणियों से देश की जनता में एक आध्यात्मिक शक्ति पैदा की| लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि क्षत्रिय समाज के बहुत कम लोगों ने इनका अनुसरण किया व जिन लोगों ने अनुसरण किया वे भी अपने आपको पुराणवादी कुसंस्कारों से मुक्त नहीं कर सके|

आधुनिक काल में भी रामकृष्ण परमहंस , स्वामी विवेकानंद , स्वामी रामतीर्थ , अरविन्द , महर्षि रमण व सांईबाबा जैसे सैकड़ों प्रगट व कितने ही गुप्त संत हुए| लेकिन हमने उनका आशीर्वाद व उनसे मार्गदर्शन लेने कि कोई चेष्टा नहीं की|
हमने कभी यह देखने की चेष्टा नहीं की कि कठिन समय व कठिन परिस्थितियों में हमारा साथ किसने दिया ? जो व्यक्ति या समाज अपने हित चिंतकों के प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकता उसका विनाश अवश्यम्भावी है| पिछले एक हजार वर्षों तक , हमारा समाज निरंतर मुसलामानों के आक्रमणों के विरुद्ध लड़ता रहा है| क्या ऐसा कहीं प्रमाण मिलता है कि एक भी बनिए अथवा ब्राह्मण ने अपना बलिदान दिया हो? आज हम जिनको आदिवासी कहते है उन भील व मीणों ने तथा हरिजनों ने हमेशा उस कठिन परिस्थिति में , जब कदम कदम पर हमें तलवार का सामना करना पड़ा पड़ रहा था , हमारा साथ दिया | लेकिन इस स्वामिभक्ति व देशभक्ति का उन्हें क्या बदला चुकाया गया ?

हम पंडो व पूंजीपतियों के हाथ के खिलोनें बन गए| गरीब किसान व हरिजन वर्ग का शोषण कर , स्वर्ग में जाने के लिए मंदिरों के दरवाजों पर थैलियाँ भेंट की गई| बोहरों को गरीबों को लूटकर धन संग्रह करने की खुली छुट दे दी गई जिसका परिणाम वाही निकला जो निकलना चाहिए था| हमें कुमार्गगामी बनाकर , हमारे से ही उत्पीड़न कराकर ,जनता से हमारे विरुद्ध बगावत का झंडा खड़ा करवाया गया , लेकिन तब तक हम पूरी तरह शक्तिहीन व विवेकहीन हो चुके थे| अतः परिणाम निकला , " स्वेच्छापूर्वक अपनी मृत्यु को , हर्ष प्रगट करते हुए मजबूरी के साथ स्वीकार करना|

भील जाति के ऋषि श्रेष्ठ बाल्मीकि के आश्रम में १० वर्ष तक राम , लक्ष्मण व सीता रहे| कम से कम 16 वर्ष तक सीता जी व लवकुश रहे | नर्बदा नहीं के तट पर भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिए माँ पार्वती ने जब कठोर तपस्या की , तब उन्होंने भी भीलों की सेवा स्वीकार की , जिसके कारण भीलों को आज भी 'मामा ' कहते है| उन भील व मीणों को इन बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र में फंसकर हमसे पृथक कर दिया जिससे हम तो शक्तिहीन हुए ही , ये जातियां भी समाज से अलगाव के कारण निरंतर पिछड़ती गई व आज उनमे हमारे प्रति शत्रुता का भाव मौजूद है|
संत मल्लुकदास जिन्होंने पंडावादी क्रियाकलापों से मुक्त होकर अपने आप द्वारा मार्ग दर्शन प्राप्त करने की चेष्टा करने को कहा| मीरा जिन्होंने घृणा को त्याग कर व विद्वेष छोड़कर , प्रेम में लीन होने की प्रेरणा दी| दादुजी के शिष्य सुन्दरदास जी जिन्होंने आत्म चिंतन व स्वयं के मन के शुद्धिकरण का महत्व बताया| उनकी व उन जैसे अनेक अन्य संतों की , हमने एक नहीं सुनी| अपने आपको बदलने के बजाय हम हठधर्मी बने रहे व दुराग्रहों पर अड़े रहे , जिसके परिणाम स्वरूप पूर्ण परभाव से साक्षात्कार करना पड़ा|
लेखक : श्री देवीसिंह महार
क्षत्रिय चिन्तक

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