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Jun 23, 2011

हमारी भूलें : संस्कृत भाषा के ज्ञान का अभाव - 1

महाभारत काल के बाद क्षत्रिय समाज व उसके साथ साथ समाज के अन्य वर्ग भी शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ते चले गए |ख़ास तौर से संस्कृत भाषा की और कोई ध्यान नहीं दिया गया | परिणाम यह हुआ कि सामान्य लोग संस्कृत भाषा से दूर हट गए व बुद्धिजीवी पंडावर्ग को धर्म ग्रंथो में मनमाने ढंग से परिवर्तन व रचना करने कि छूट मिल गई |
संस्कृत भाषा के ज्ञान के अभाव में प्रांतीय भाषाओं का अभ्युदय हुआ तथा इनमे रचे गए साहित्य पर भी पंडावादी साहित्य कि कलि छाया पड़ती चली गई | देश कि सम्पर्क भाषा संस्कृत नहीं रही , जिसके कारण देश सांस्कृतिक रूप में एक नहीं रहकर विभिन्न संस्कृतियों में विभाजित होता चला गया | प्रांतीय भाषाओं में रचा गया साहित्य उन आध्यात्मिक मूल्यों व साधना प्रणालियों के मूल को ग्रहण नहीं कर सका , जिसे ऋषिमुनियों ने बड़ी तपस्या के बाद उपार्जित किया था |

संस्कृत भाषा के ज्ञान के अभाव में , जिन विद्वान व तपस्वी लोगों ने पंडावाद के विरुद्ध विद्रोह किया था , उनकी परम्परा को निरंतर  समर्थन व सहयोग नही मिला व जिसके कारण यह विद्रोह खंडित व विभाजित रहे तथा निरंतर व गतिशील नहीं रह सके |
 संस्कृत भाषा के ज्ञान के अभाव में क्षत्रियों ने अपनी मूल साधना व आराधना पद्दिती को खो दिया | जिन्हें यह भी ज्ञान नहीं रहा कि कोई भी व्यक्ति अथवा समाज दुसरे के उपार्जन पर जीवित नहीं रह सकता | बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र के पहले शिकार वे तब बने जब क्षत्रियों ने यह स्वीकार कर लिया कि उनका कार्य केवल समाज कि रक्षा करना है | पुराण व अन्य ग्रंथो में ही नहीं वेदों तक में इस आशय के श्लोक समाविष्ट कर दिए गए कि क्षत्र्रियों कि उत्पत्ति भुजाओं से हुई व भुजाओं का कार्य शरीर कि रक्षा करना है  अतः क्षात्र धर्म का अर्थ हे समाज कि रक्षा करना |

वेदों में भुजाओ से राजाओं की उत्पत्ति का उल्लेख है | जिसे भाषा के समुचित ज्ञान के अभाव में लोगों को यह समझा दिया गया की क्षत्रियों की उत्पत्ति भुजाओं से हुई है | लोग यह नहीं जानते की क्षत्रिय केवल मनुष्यों में होते है , जबकि राजा देवताओं , नागों , राक्षसों व दानवों में भी होते है | अतः राजा के गुण ढंग की तुलना क्षत्रियों के गुणों से नहीं की जा सकती | इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है की मनुष्यों में भी हर काल में शासक या राजा क्षत्रिय ही नहीं होते | अतः क्षत्रिय व राजा के भेद को ठीक प्रकार से समझना आवश्यक है
मुखतो ब्राह्मणः जाताः, उरसा क्षत्रियास्तथा |
उरुभयां जज्ञिरे वैश्याः पद्भ्यां शुद्रा इति श्रुतिः ||
बाल्मीकि रामायण


मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए और हृदय से क्षत्रिय | दोनों उरुओं से (जघाओं से ) वेश्यों का जन्म हुआ और दोनों पैरो से शूद्रों का ऐसी प्रसिद्धि है | बाल्मीकि रामायण के उक्त श्लोको से स्पष्ट है कि क्षत्रियों की उत्पत्ति हृदय से हुई है | हृदय व उसकी भूमिका को नहीं समझने वाले लोग आसानी से यह मत प्रगट कर सकते  है कि क्षत्रियों की उत्पत्ति भुजाओं से हुई हो , चाहे उदय से , उसमे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता , क्योंकि क्षात्र धर्म भी राजा के धर्म का ही अंग है | ऐसे लोगों का ध्यान इस तथ्य की और आकर्षित करना आवश्यक है कि क्षत्रिय शासको व अन्य शासको की जीवन व व्यवहार में बहुत बड़ा अंतर रहा है उसका कारण केवल यही था कि दुसरे राजा लोग  नीति व धर्म शास्त्रों से राजा के धर्म की शिक्षा तो प्राप्त कर लेते थे , लेकिन उसे हृदयगंम कर अपने जीवन को बदल देने की क्षमता , उनमे नही थी | जिसके परिणाम स्वरूप वे क्षत्रिय शासकों द्वारा स्थापित उच्च आदशो तक नहीं पंहुच सके |

हृदय दाहिने फेफड़े के निचले भाग के निचे सीने के मध्य से तीन अंगुल दाहिनी और स्थित सूक्ष्म अंग है | जिसे भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता |इस हृदा में प्राण व आत्मा निवास करते है | क्षत्रिय हृदय को अपनी साधना का केन्द्र बनाकर अपने प्राण से सम्पर्क स्थापित करता है  तथा इस प्राण से साथ सदा निवास करने वाले के प्रकाश से ओतप्रोत हो , उस ज्ञान को कुछ ही क्षणों में अर्जित करने की क्षमता रखता है , जिस ज्ञान के लिए ज्ञानमार्गी जीवन पर्यन्त साधना करते रहे है |

महर्षि विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को संकल्प द्वारा बला व अति बला नाम की विधाएं प्रदान की गई जिनके द्वारा कभी नष्ट न होने वाला ज्ञान व कभी कलांत न होने वाला शारीरिक बल उन्हें मिला | इसके अलावा और भी अनेक प्रकार शास्त्र व अस्त्र - शास्त्र की विधाएं संकल्प द्वारा विश्वामित्र जी ने श्री राम व लक्ष्मण को प्रदान की | भगवान् कृष्ण द्वारा भी अर्जुन की रणक्षेत्र की मध्य में कुछ ही समय में वह दिव्य ज्ञान प्रदान किया ,जिससे अर्जुन शोक मुक्त होकर क्षात्र धर्म का पालन करने को तैयार हो सका | हृदय के उदघाटन व प्राण के द्वारा प्राण से संसर्ग , ज्ञान का बीजारोपण व विद्याओं का आदान प्रदान , यह क्षत्रिय परम्परा रही है | जिसको केवल हृदयगत साधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है |
पंडावादी तत्वों द्वारा अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने व क्षत्रियों को उनके परम्परागत ज्ञान से विमुख करने के उद्देश्य से पुराणवादी ग्रंथों द्वारा यह प्रचार किया गया कि क्षत्रियों कि उत्पत्ति भुजाओं से हुई है | जिस हृदय में परमात्मा का स्वरूप स्वयं आत्मा निवास करी है | उससे मुख कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता | अतः अगर मुख से उत्पन्न होने वाले तत्वों को अपने आपको जगदगुरु सिद्ध करना हो तो उसके लिए यह आवश्यक था कि वे क्षात्र तत्व की श्रेष्ठता को लोगों की आँखों से ओझल करे | इसलिए सारे पुराणवादी ग्रन्थ व आधुनिक पंडावादी विद्वान तक एक स्वर से यह घोषणा करते है कि बाल्मीकि रामायण झूंठी है ! झूंठी है ! झूंठी है !!! जिन लोगों ने इतने धार्मिक ग्रंथो को नष्ट किया व उनमे परिवर्तन किया | उनकी नजरों से व कारगुजारियों से बाल्मीकि रामायण किस प्रकार से अछूती रह गई ; यह भी आश्चर्यजनक बात है |

इस संदर्भ में बाल्मीकि रामायण के बाद हमे श्रेष्ठ ग्रन्थ महाभारत के बारे में भी थोड़ा विचार करना होगा | यद्यपि यह ग्रन्थ पंडावादी कार गुजारियो से पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा | इसमें जो थोड़े पतिवर्तन किये गए है , उनकी उपेक्षा कर दी जाए तो इस ग्रन्थ को भी बाल्मीकि रामायण कि तरह संसार के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में माना जायेगा | महाभारत ग्रन्थ कि रचना महर्षि वेदव्यास ने कि है , जबकि पंडों का कथन यह है कि पुराणों कि रचना भी व्यास जी द्वारा ही की गई है | जिसे कोई भी व्यक्ति , जिसने इन ग्रंथों को पढ़ा है , उसे स्वीकार नहीं कर सकते , बाल्मीकि रामायण में जितनी कथाओं का वर्णन आता है , पुराणों में उन कथाओं में  उलट दिया गया है  , जिससे रामायण को झूंठा साबित कर सके | इसके अतिरिक्त महाभारत व पुराणों के विचार व तर्क भी एक दुसरे से मेल नहीं खाते | इससे यह स्पष्ट हे की पंडावादी पुराणों के रचनाकारों ने व्यास जी के नाम का दुरुपयोग करने की चेष्टा हे , जो अक्षम्य अपराध है |

इस बात को आधुनिक विद्वान चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अपनी पुस्तक में स्वीकारा है की महाभारत की कुछ ऋचाओं को बदला गया है और कुछ कथाएं जोड़ दी गई है | रामायण के रचनाकार बाल्मीकि जी के आश्रम में बनवास के समय श्री राम , लक्ष्मण व सीताजी दस वर्ष तक रहे | इसके बाद कम से कम १६ वर्ष तक सीताजी लव कुश के साथ , उनके आश्रम में रही लेकिन बाल्मीकि जी ने अपने साथ वार्तालाप का कोई प्रसंग रामायण में नहीं दिया | इससे स्पष्ट हे की महाभारत में व्यास जी के कथन के रूप में जो कथाएं कही गई है | वह बाद में जोड़ी गई है | इसी प्रकार वैशम्पायन जी व जनमेजय के बीच के संवाद भी बाद में जोड़े गए है | पंडावादी ग्रन्थों में विश्वामित्र जी के बारे में अनेक मन जठंत कथाएं उनके चरित्र को आवश्यकता से अधिक उभारने की चेष्टा की है | अतः इस ग्रन्थ में परशूराम जी से सम्बन्धित जो भी प्रसंग आये है , उन्हें प्रमाणित नहीं माना जा सकता |
क्रमश :
लेखक : श्री देवीसिंह महार
क्षत्रिय चिन्तक


श्री देवीसिंह जी महार एक क्षत्रिय चिन्तक व संगठनकर्ता है आप पूर्व में पुलिस अधिकारी रह चुकें है क्षत्रियों के पतन के कारणों पर आपने गहन चिंतन किया है यहाँ प्रस्तुत है आपके द्वारा किया गया आत्म-चिंतन व क्षत्रियों द्वारा की गयी उन भूलों का जिक्र जिनके चलते क्षत्रियों का पतन हुआ | इस चिंतन और उन भूलों के बारे में क्यों चर्चा की जाय इसका उत्तर भी आपके द्वारा लिखी गयी इस श्रंखला में ही आपको मिलेगा |

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