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Apr 24, 2011

धर्मं शास्त्र और क्षत्रिय

कुँवरानी निशा कँवर
आज उपलब्ध लगभग सभी धर्म शास्त्रों में किसी न किसी रूप में क्षत्रियों का वर्णन अवश्य ही आता है |फिर भी धर्म शास्त्रों का शोध पूर्ण अध्ययन किया जाये तो एक बात उभर कर सामने आती है कि अधिकांश धर्म शास्त्र विरोधाभाषी है |जैसे आज भारतीय जन मानस पर गहरी छाप छोड़ चुकी "श्री राम चरित मानस " को ही लें |इसमें गोस्वामीजी लिखते है कि महाराज मनु और महारानी शतरूपा को वैराग्य हुआ तो वे नैमीसारान्य में जाकर घोर तप करने लगे |और उनकी इस कठोर तपस्या के मध्य साधारण देवी देवताओं से लेकर ब्रह्मा,विष्णु और आदिदेव शंकर जी कई बार आए और उनकी कठोर तपस्या का प्रयोजन जानना चाहाकिन्तु मनु जी ने इनको न तो तरजीह ही दी और न ही इस ओर ध्यान ही दिया |उनका लवाना तो परम-पिता परमेश्वर ,इस जगत के आधार,अखिल ब्रह्मांड के नायक,अक्षर ,अकाल,परब्रह्म के प्रति लगी हुयी थी |और अंत में वह परब्रह्म प्रकट भी हुए ,और उस परब्रह्म का जो वर्णन गोस्वामीजी ने किया है वह श्री राम और साक्षात् प्रकृति स्वरूपा माता सीता का है न कि विष्णुजी और एवं लक्ष्मी जी |फिर उन्ही को अपने पुत्र रुपे में जन्म का वरदान पाने में राजा मनु एवं शतरूपा सफल भी हुए |किन्तु आगे चलकर इन्ही गोस्वामीजी की रामचरित मानस में श्री राम को विष्णुजी और माता सीता को लक्ष्मीजी का अवतार बता दिया जाता है |और इसी में सुन्दर कांड में श्री हनुमानजी जब लंका की राजसभा में रावण के समक्ष उपस्थित होते है तो रावण को समझाते है | "शंकर सहस्त्र ,विष्णु ,अज तोही ! सकहिं राखि राम कर द्रोही ! !"अर्थात हजार शंकरजी ,हजार ब्रह्माजी और हजार विष्णु जी मिलकर भी उसे नहीं बचा सकते जो श्री राम का द्रोही है |अर्थात श्री राम विष्णु जी कई हजार गुना बड़े और शक्तिवान है |फिर बीच बीच में गोस्वामीजी श्री राम को विष्णुजी का अवतार श्री को कभी आकाश और कभी एकदम से धरती पर पटक कर आखिर गोस्वामीजी सिद्ध क्या करना चाहते है मेरी तो समझ से परे है |जब मनुजी को अक्षर ,परब्रह्म ने प्रकट होकर दर्शन दिए थे तब वे श्री राम और सीता जी के रूप का वर्णन स्वयं गोस्वामीजी ने दो

भुजा धारी,धनुष बाण धारी के रूप में किया है |और अगले जन्म में महारानी कौशल्या के सामने उनको गोस्वामीजी द्वारा "भये प्रगट कृपाला ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,," में उनको चार भुजा धारी ,विष्णुजी बना देते है |आखिर गोस्वामीजी साबित क्या करना चाहते है ???क्या श्री राम महाराज दशरथ के अंश और महारानी कौशल्या की कोख से पैदा नहीं हुए थे ??तो क्या उस अक्षर ,उस सर्व शक्तिमान परम-अविनाशी इश्वर द्वारा महाराज मनु और शतरूपा को दिया गया वचन झूंठा था ???क्या इश्वर के लिए कुछ भी असंभव होसकता है जो वह कोख में भी प्रविष्ट नहीं होपाया ???????मुझे बड़ा आश्चर्य है कि सैकड़ों बार अध्यन कर चुके प्रबुद्ध पाठकों का ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं |बात इतनी ही नहीं है आगे देखिये धनुष यज्ञ के समय परशुरामजी से श्री राम के मुख से गोस्वामीजी ने कहलवाया है कि "आप लड़ने तो मेरी हानि ही है क्योंकि मारूम्गा तो ब्रह्माण की हत्या का पाप लगेगा और हरूँगा तो सुर्यवंश की अपकीर्ति होगी |" यह क्या कहलवा रहे है तुलसीदास जी ????और वो भी उन श्री राम जी के मुख से जिन्होंने अपने जीवनकाल में सिर्फ "वानर राज बाली" के अतिरक्त जिसे भी मारा वह ब्रह्माण ही था |ऐसा भी नहीं की धनुष यज्ञ से पूर्व उन्होंने किसी ब्रह्माण को नहीं मारा हो ,इस यज्ञ तक पहुँचने से पूर्व ताड़का,सुबाहु आदि को मारा जाचुका था |इसके अलावा रावण ,कुम्भकरण ,मरीचि ,सुबाहु,सूर्पनखा सहित समस्त दैत्य ब्राहमण ही तो थे |दैत्य का अर्थ होता है दिति के पुत्र ,ब्रह्माण ऋषि कश्यप और ब्रह्माण कन्या दिति के वंशज ही दैत्य कहलाये थे |यहाँ तक की महर्षि बाल्मीकि जी ने जिस रामायण की रचना की उसका तो नाम भी "पौलस्त्य वध " जिसका का सीधा सा अर्थ पुलस्त्य ऋषि के वंशजों का वध |इस राम चरित मानस में उसी के नायक श्री राम के चरित्र में इस प्रकार की विरोधाभाषी बाते किसी ने नोट नहीं की यह बड़े ही आश्चर्य की बात है |
केवल राम चरित मानस में ही ऐसा हो ऐसा भी नहीं है |महाभारत में वेद-व्यास जी के नाम से विख्यात श्री कृष्ण दैवपायन (अर्थात दुसरे कृष्ण)को पराशर ऋषि एवं सत्यवती का नाजायज पुत्र बताया गया है |जबकि उन्ही वेद-व्यास जी से उनके शिष्य पूंछते है कि"आपको श्री हरि का पुत्र क्यों कहते है ??"तब वेद-व्यास जी बताते है क्योंकि "मुझे श्री हरि ने अपनी वाणी से उत्पन्न किया है |मै किसी भी माता या पिता के द्वारा पैदा किया गया नहीं हूँ |"फिर महभारत जिसके रचियता स्वयं वेद-व्यास जी ही है उसमे वे अपने आपको पराशर ऋषि एवं सत्यवती की नाजायज संतान क्यों मानेंगे ????आगे देखिये फिर महाराज विचित्र-वीर्य जब निसंतान रहकर मर्जाते है तो उनकी रानियों का इन्ही वेद-व्यासजी से नियोग करवा कर पुत्र उत्पन्न करवाए जाते है |यह सब कितना अनैतिकता से भर पूर लगता है |जब आज के परिवेश में यह अनैतिक लग रहा है तब उस समय तो घोर अनैतिक लग रहा होगा |पर ऐसा धर्म शास्त्रों में क्यों है ??जबकि विचित्र-वीर्य का नाम ही विचित्र-वीर्य इसलिए पड़ा था क्योंकि उनके मृत्यु के उपरांत भी उनका अंश सुरक्षित रखा जासकता था जिसे क्वे-व्यास जी जैसे उच्च कोटि के ऋषि ही सुरक्षित रखने की विधि जानते थे |जिसे पितामह भीष्म के साथ वेद-व्यासजी की अभिन्न मित्रता के कारन वेद-व्यासजी ने उस विधा का उपयोग कर महाराज विचित्र वीर्य के अंश से ही रानियों के पुत्र पैदा करवाए |मुझे तो लगता है की धर्म शास्त्रों के साथ कोई छेड़छाड़ हुयी है |और उसमे क्षत्रिय पत्रों के चरित्र को निम्न साबित करना उदेदश्य रहा होगा |उनके धार्मिक ग्रंथों में इस प्रकार का झूंठ भर दिया गया है जिसमे लगता है की सत्य इस असत्य के ढेर में कहीं दब कर रह गया है |इन्होने श्री कृष्ण के चरित्र को तो ऐसा पेश किया है जो कि लगता कि कृष्ण इश्वर नहीं कोई आवारा छोकरा था |योगेस्ग्वर श्री कृष्ण के कभी १६१०८ गोपिकाओं से शारीरिक सम्बन्ध बताते है तो कभी महारास के जरिये अनैतिक लीलाए बताते है |जबकि श्री कृष्ण जब गोकुल से मथुरा जाते है तब उनकी उम्र मात्र ११-१२ वर्ष थी |इतनी अल्प-आयु के बालक से ऐसी अनैतिक लीलाएं इन धर्म के ठेकेदारों ने कैसे संभव करा दी यह बात अपने आप में ही शोध का विषय है |क्योंकि मथुरा आने के बाद तो श्री कृष्ण फिर गोकुल लौट कर गए ही नहीं |अब जब लगभग सभी धर्म शास्त्रों में इस तरह कि घोर मिलावट है तब एक साधारण क्षत्रिय अपने धर्म कर्म को कहाँ से ग्रहण करे ?और इन धर्म शास्त्रों को पूरी तरह से नकार दें तब भी हानि- ही हानि है क्योंकि लाखों करोड़ों वर्षो का क्षत्रिय इतिहास ही तो है यह धर्म शास्त्र |फिर करें तो क्या करें ???इसका एक ही उत्तर है दूध में भरी मात्र में मिले पानी में या तो हंस बन कर पानी छोड़ कर सिर्फ दुग्ध पान किया जाये |या फिर दूध को गर्म करके जमाना पड़ेगा और फिर असली दूध दही बनकर पानी स्वयं अलग होजायेगा |अर्थात धर्म शास्त्रों का अध्यन या तो शोध पूर्ण तरीके से किया जाये ,जिससे हंस कि तरह केवल दूध का ही पान किया जाये | या फिर ईश्वर के नाम स्मरण से अपने विवेक को,और अपने ज्ञान को जागृत करें |जिससे सत्य दही कि तरह आपके सम्मुख होगा |यदि बिना इसके हम उपलब्ध धर्म शास्त्रों का आंख मींच कर विश्वाश करने लगे तो ठगे जायेंगे |और अधिकांश धर्म शास्त्र जो कि हमारा इतिहास मात्र है को इतिहास के तौर पर ही लेना होगा |हमे जानना होगा कि किस रश्ते पर चलकर हमारे पूर्वजों ने अपने धर्म (स्वधर्म)का पालन किया है |
पवित्र ग्रन्थ श्री गीता में चौथे अध्याय के पहले ही श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है

"इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम |

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाक्वे अब्रवीत !!१!!"

अर्थात मैंने सृष्टि के आरंभ में इस निर्विकार योग को विवस्वान आदित्य के लिए कहा था और विवस्वान आदित्य ने मनु को ,मनु ने इक्ष्वाकु को कहा था |

"एवं परंपराप्राप्तिमिम' राजर्षयो विदः !

स कालनेह महता योगोनष्ट : परंतप !!२!!

अर्थात इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को क्षत्रिय ऋषियों ने ने जाना ,वह योग बहुत काल से इस लोक में नष्ट होगया है |अर्थात आज से पहले भी यह गीता का ज्ञान या योग जो परंपरा से प्राप्त क्षत्रिय ऋषियों के पास पहले से ही था किन्तु नष्ट होगया था |उसी ज्ञान योग को श्री कृष्ण ने अर्जुन को पुनः बताया |और या गीता का ज्ञान अर्जुन को तब दिया गया जब अर्जुन क्षात्र-धर्म को बीच रण- क्षेत्र में अकेला छोड़कर ब्रह्मण-धर्म की ओर पलायन करने के लिए आतुर था |इस ज्ञान योग को ग्रहण कर अर्जुन पुनः क्षात्र-धर्म के पालन के लिए उठ खड़ा हुआ और सर्व श्रेष्ट क्षत्रियों की गिनती में आगया |इसका अर्थ यह हुआ कि गीता का यह निष्काम कर्म योग ही तो क्षात्र-धर्म (स्वधर्म) का आधार है |क्योंकि अर्जुन इस क्षात्र-धर्म से पलायन को आतुर था |अतः वह कर्म योग जो श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया वह हुम्क्षत्रियों के पास परम्परा से प्राप्त था |अतः आज जब सभी अर्जुन की तरह क्षात्र-धर्म स्वे पलायन आतुर है तो इस क्षात्र-धर्म के पुनः पालन के लिए हम सभी श्री गीता जी के योग ,ज्ञान और निष्काम कर्म योग की तुरंत और अवश्यंभावी आवश्यकता है |तो हम सभी को अपने आपको अर्जुन के स्थान पर रख कर इस गीता का शोध पूर्ण अध्यन की आवश्यकता है |अक्षरश:इसलिए नहीं की मुझे लगता है की इनकी मिलावट से श्री गीता जी अछूती रह गयी हों संभव नहीं लगता |फिर भी श्री गीता जी में इनकी मिलावट उतनी नहीं होपयी जिंतना कि रामायण एवं महाभरत में है |अतः हम सभी अपने धर्म क्षात्र-धर्म के पालन के आधार को श्री कृष्ण द्वारा दिए गए इस योग को समझे एवं अपने जीवन में उतर कर उसे व्यवहारिक सिद्ध करें |धर्म शास्त्रों का क्षात्र-धर्म पुनरुत्थान में सिर्फ यही योगदान होसकता है |

"जय क्षात्र-धर्म"

कुँवरानी निशा कँवर
श्री क्षत्रिय वीर ज्योति

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