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Jul 20, 2008

प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप

भूपेंद्र सिंह चुण्डावत, उदयपुर किरण
मेवाड वीर सपूत महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 154॰ को हुआ। उस समय ज्येष्ठ शुक्ला तीज संवत् 1597 का समय मुगलों का आंतक व अत्याचारों का युग चल रहा था। चारों तरफ मेवाड में मानवता रो रही थी। लोग अपने-अपने धर्म व कर्म से हताश हो गए थे, चारों ओर घोर अंधकार और निराशा के बादल छा चुके थे। बडे-बडे शक्तिशाली राजा-महाराजाओं तक ने उस समय के मुगल शासकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। जन-जन को निराशा हो चुकी थी मूक रूप से जन-जन अपने जीवन रक्षक से रक्षा की आशाएंे संजोये बैठे हुए देख रहे थे। ऐसे विकट दासता के समय में जन-जन में चेतना जाग्रत करने व वीरता की भावना भरने तथा मेवाड भूमि की रक्षा करने के लिए परमात्मा ने इस वीरभूमि एक देशभक्त सपूत दिया जिसका नाम था। महाराणा प्रताप मेवाड भूमि का कौन जन तानता था कि आगे चलकर यही वीर सपूत प्रताप मेवाड की स्वतंत्रता का अग्रदूत बनकर मेवाड की रक्षा व मान-सम्मान बनाये रखने के लिये जंगलों की राहों में घुमता फिरेगा। इसके जन्म पर ऐसा प्रतीत हुआ मानों सृष्टि सरोवर में मानवता का शतदल खिल उठा हो, मानो पीडित, उपेक्षित, दासता वद्व जन-जन की निराशा आशा का सम्बल पा गई हो। पहली सन्तान होने के कारण उदयसिंह ने उसके बडे लाड प्यार से पाल पोषकर बडा किया तथा माता-पिता द्वारा इसको वीरता की शिक्षा मिली। बचपन में ही इसको अस्त्रों-शस्त्रों से खेलने तथा शिकार करने का बडा शौक था। इन पर मेवाड की जनता अपना बलिदान दकने तथा सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थी अपने पिता की मृत्यु के बाद मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी होकर इन्होंने राजसिंहासन सुशोभित किया। इस समय दिल्ली में सम्राट अकबर राज्य कर रहा था। वह सभी राजा महाराजाओं के राज्यों को अपने अधीन करके पूरे भारत पर मुगल साम्राज्य का ध्वज फहराना चाहता था। परन्तु इस देशभक्त वीर ने मेवाड भूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अपने को तथा अपने पूरे परिवार को जंगल में भटकते रहने को मजबूर कर संकट झोलकर भी अकबर की अधीनता सम्बन्धी बातों को कभी स्वीकार नहीं किया और समय-समय पर मुगल सेना व मुगलशासकों से लोहा लेते रहे। मुगलों को लोहे के चने चबवाते रहे। परन्तु मेवाड भूमि के एक भी कण को गुलामी की जंजीरों में जकडने नहीं दिया। इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड आजाद नहीं होगा, तब तक महलो को छोडकर जंगलों में निवास करूंगा। सोने के पलंग को छोडकर तृण शैया पर शयन करूंगा। स्वादिष्ट भोजन को त्यागकर जंगली कन्द मूलों का आहार ग्रहण करूंगा। चांदी के बरतनों को छोडकर वृक्षों की पत्तियों से बनी पत्तलों में भोजन करूंगा। परन्तु जीते जी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं करूंगा और अपने प्रण की प्रतिज्ञा का पालन करता रहूंगा। अकबर तथा महाराणा प्रताप के बीच 1576 में हल्दीघाटी नामक स्थान पर युद्ध हुआ वह अविस्मरणीय है। इस युद्ध में प्रताप ने अपनी वीरता से शत्रु सेना के दांत खट्टे कर दिए तथा अपनी वीरता का अपूर्व व अनोखा परिचय दिया। सैकडों मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। परन्तु भाग्य की विडम्बना इस युद्ध का कोई परिणाम न निकल सका। उसके कारण इनके मन में
निराश की भावना जाग्रत हो गई और धन के अभाव के कारण चिंतित होने लगे। ऐसे समय में भामाशाह ने अपना धन देकर इनको सहायता देकर अपना नाम भामाशाह दानी बनाया। इस तरह महाराणा प्रताप अपने सम्पूर्ण जीवन को संघर्ष में बिताकर मुसीबतों का सामना करके संकटों को झेलते रहे, लेकिन अन्याय के पथ पर कभी आगे नहीं बढे। जिस तरह महाराणा प्रताप ने अपने देश की आन-बान-मान आदि की रक्षा के लिए अपने पूरे जीवन को बलिदान कर दिया, उसी तरह हम भी अपने देश की रक्षा तथा सुरक्षा के लिये बलिदान व त्याग की भावना अपनावे।

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